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Impariamo a immaginare l’amore attraverso il cinema: Rapiscono Kumar

Può l’amore superare i confini? (Illustrazione: Subrata Dhar)

हर कोई इश्क़ में नहीं होता है और न हर किसी में इश्क़ करने का साहस होता है । हमारे देश में ज़्यादातर लोग कल्पनाओं में इश्क़ करते हैं । मुझे बाकी मुल्कों का पता नहीं लेकिन भारत में इश्क करना अनगिनत सामाजिक धार्मिक धारणाओं से जंग लड़ना होता है । मोहब्बत हमारे घरों के भीतर प्रतिबंधित विषय है । कितने माँ बाप अपने बच्चों से पूछते होंगे कि तुम्हारे जीवन में कोई है ? तुम्हें कोई अच्छा लगता है या तुम किसी को चाहती हो ? बहुत कम । इतने कम सामाजिक सपोर्ट के बीच किसी से इश्क़ करना सिर्फ आई लव यू कहना नहीं होता है ।

हम सबके जीवन में प्रेम की कल्पना फ़िल्मों से आती है । फ़िल्में हमारी दीवानगी की शिल्पकार हैं । फ़िल्मकारों, गीतकारों और संगीतकारों की कई पीढ़ियों ने हमें प्रेम सीखाने के लिए अपनी अनगिनत कल्पनाओं को फूँक दिया । किसी को पहली बार देखने का फ़न से लेकर उससे टकरा जाने का हुनर फ़िल्मों ने हमें दिया है । इस प्रक्रिया में फ़िल्मों ने हमें लफ़ंगा भी बनाया और अच्छा प्रेमी भी । एक दूजे के लिए एक पावरफुल फ़िल्म थी । पहली बार हिन्दी सिनेमा में भाषा की दीवार पार कर प्रेमी उस महान भारत की कल्पना को साकार करने में अपनी जान देते हैं जिसका ढिंढोरा और ढोंग भारत दिन रात करता है । रति अग्निहोत्री और कमल हसन की वो जोड़ी आज भी रूलाती है । एक दूजे के लिए ने पहली बार हमारे भीतर की तथाकथित अखिल भारतीयता को चुनौती दी थी । हिन्दी सिनेमा के नाम से गाने बना देना सिर्फ हुनर नहीं था बल्कि एक रास्ता था कि अगर कोई हिन्दी वाली किसी तमिल वाले को चाहे तो मुमकिन है । वो उसे चाहते हुए तमिलनाडु के ज़िलों और शहरों के नाम से बुला सकती है । बात कर सकती है और उसके साथ गा सकती है ।

लेकिन फ़िल्मों ने हमें बहुत अच्छा प्रेमी नहीं बनाया । मुंबई से आने वाली तमाम प्रेम कहानियाँ बहुत से बहुत अमीरी ग़रीबी की दीवार से ही टकराती रह गईं ।’ इक धनवान की बेटी ने निर्धन का दामन छोड़ दिया, चाँदी की दीवार ने मेरा प्यार भरा दिल तोड़ दिया ‘। उफ्फ ! अमीर लड़कियाँ हमेशा बेवफ़ा होती हैं और दिल तोड़ने वाली । वैसे कई फ़िल्मों में अमीर लड़कियों ने ग़रीब लड़कों के लिए घर बार छोड़ा भी लेकिन फ़िल्मों से यही नैरेटिव बना कि अमीरी ग़रीबी इश्क़ की दुनिया की जात है । जिसके बीच प्रेम नहीं हो सकता । सब अपनी अपनी जाति की हदों में रहें और हो सके तो वहीं प्यार की संभावना तलाशें । ‘ पग घुँघरू बाँध मीरा नाची थी और हम नाचे बिन घुँघरू के !’

हिन्दी सिनेमा के पर्दे पर अनगिनत प्रेमी जोड़े आए । पर्दे पर वो सिर्फ दो ख़ूबसूरत शरीर होते हैं । उनकी न तो कोई जाति होती है और न धर्म । हमारे फ़िल्मकारों की कल्पनाओं का प्यार वाक़ई कल्पना से ज्यादा कुछ नहीं था । कभी गीतकारों ने अपनी क़लम से ऐसे गीत नहीं लिखे जिसमें कोई लड़का किसी लड़की की सामाजिक पहचान से भिड़ जाता हो । सारे हीरो अपर कास्ट वाले हुए । कपूर माथुर और सक्सेना से आगे नहीं जा सके । नायिकाएँ लिली मिली और सिली होती रहीं । ऐसा लगा कि नायिका सीधे आसमान से आती है । ‘किसी शायर की ग़ज़ल ड्रीम गर्ल । किसी झील का कमल ड्रीम गर्ल । ‘

ज़ाहिर है हिन्दी सिनेमा की अनगिनत कहानियों ने इश्क़ को status quo में बदल दिया जबकि इश्क में आप स्टेटस कोइस्ट हो ही नहीं सकते । आपको सबसे पहले जाति की दीवार लांघनी पड़ती है । हिन्दू मुस्लिम एकता का प्रवचन देने वाली हिन्दी फ़िल्मों ने जानबूझकर हिन्दू मुस्लिम इश्क़ को नज़रअंदाज़ किया । मुझे याद नहीं कब किस फ़िल्म में कोई हिन्दू लड़की किसी मुस्लिम लड़के का हाथ पकड़ कर कहती है कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ । किसी दलित लड़की के लिए कोई हीरो अपने कपूर ख़ानदान को लात नहीं मारता । ओह, मैं भी फ़िल्मों से समाज सुधार की उम्मीद करने लगा । Vieni Rapiscono .

दरअसल जाति और मज़हब की दीवार तोड़ कर प्रेम करने की कल्पना हमारी राजनीति में भी नहीं है । कुछ नेता है जो मुस्लिम हैं मगर उनकी पत्नी हिन्दू हैं । कुछ हिन्दू नेता हैं जिनकी पत्नी मुस्लिम है । बाक़ायदा प्रेम विवाह किया मगर वे भी अपने इश्क को पब्लिक में डिस्प्ले नहीं करते । बचते हैं कि कहीं मतदाता नाराज न हो जाए । लेकिन क्या समाज भी ऐसा है ? बिल्कुल है मगर उसी के भीतर इश्क की ज्यादा क्रांतिकारी संभावनाएँ पैदा हो जाती हैं । लोग जाति और धर्म की दीवार तोड़ देते हैं ।

आपने देखा कि मैंने कितनी बार दीवार का इस्तमाल किया । दरअसल यही ट्रेजडी है । इश्क़ बिना दीवार के कर नहीं सकते । बिना महबूब के कर सकते हैं लेकिन बिना दीवार के नहीं ! तमाम तरह के झमेलों से गुज़रना होता है प्यार में । आप बाग़ी हो जाते हैं और बावले हो जाते हैं । इतना टेंशन… कि फ़िल्मों की तरह जल्दी किसी कल्पना में डिजाल्व हो जाने का जी चाहता है । जहाँ अचानक पतलून और जूता सफेद हो जाता है । महबूबा लंबी सफेद में गाउन में स्लो मोशन में लहराती चली आती है । दोनों गाना गाने से पहले लिपट जाते हैं । ‘मय से न मीना से न साक़ी से, दिल बहलता है मेरा आपके आ जाने से ।’ ख़ुदगर्ज़’ के इस गाने से पता चला कि माशूक़ा मनोरंजन का रिप्लेसमेंट हो सकती है । टीवी पर अच्छा गाना नहीं आ रहा हो, पिता से झगड़ा हो गया हो तो सारे टेंशन स्थगित कर कोई गाना गाया जाए । गुलज़ार या आनंद बख़्शी से लिखवाया जाए । La fuga è l’unico spazio per l’amore in India.

हमारे शहरों में प्रेम की कोई जगह नहीं है । पार्क का मतलब हमने इतना ही जाना कि गेंदे और बोगनविलिया के फूल खिलेंगे । कुछ रिटायर्ड लोग दौड़ते मिलेंगे । दो चार प्रेमी होंगे जिन्हें लोग घूर रहे होंगे । कहीं बैठने की कोई मुकम्मल जगह नहीं है । इश्क़ के लिए जगह भी चाहिए । इस स्पेस के बिना हमारे शहर के प्रेमी सुपर मॉल के खंभों के पीछे घंटों खड़े थक जाते हैं । कार की विंडो स्क्रीन पर पर्दा लगाए अपराधी की तरह दुस्साहस करते रहते हैं । सिनेमा हॉल के डार्क सीन में हाथ पकड़ते हैं और उजाले का सीन आते ही हाथ छोड़ देते हैं । प्रेम करने वालों ने अपनी ये व्यथा किसी को सुनाई नहीं । फेसबुक पर भी नहीं लिखा ! ‘ मिलो न तुम तो दिल घबराये मिलो तो आँख चुराये हमें क्या हो गया है । ‘ इस गाने को सुनते हुए क्या आपको लगता नहीं कि पहले ये तो बता दो कि कहाँ मिले ।

पर हैट्स ऑफ़ टू ऑल लवर्स आफ इंडिया । मिलने की जगह नहीं फिर भी आप मिलने की गुज़ाइश ढूँढ लेते हैं । ऑटो का पर्दा गिरा देते हैं, पूरी पाकेट मनी ऑटो के किराये में लुटा देते हैं, ख़ाली हॉल के चक्कर में बेकार फ़िल्मों का कलेक्शन बढ़ा आते हैं, आते जाते लोगो की निगाहों के बाद भी एक दूसरे के कंधे से सर नहीं हटाते । प्रेम के दो पल के लिए रोज़ हजार पलों की यह लड़ाई आपको प्रेमी से ज़्यादा एक्टिविस्ट बना देती है । जिसने भी प्यार किया है वो इन हादसों से गुज़रा ही है । मैं नेता होता तो हर शहर में एक लव पार्क बना देता और अगला चुनाव खुशी खुशी हार जाता । ज़ाहिर समाज को मेरी ये बात पसंद नहीं आती ।

इश्क कोई रोग नहीं टाइप के सिंड्रांम से निकलिये । इश्क के लिए स्पेस कहाँ है डिमांड कीजिये । पैंतीस साल के साठ प्रतिशत नौजवानों तुम सिर्फ मशीनों के कल पुर्ज़े बनाने और दुकान खोलने नहीं आए हो । तुम्हारी जवानी तुमसे पूछेगी बताओ कितना इश्क किया कितना काम किया । काम से ही इश्क़ किया तो फिर जीवन क्या जीया । किसी की आँखों में देर तक देखते रहने का जुनून ही नहीं हुआ तो आपने देखा ही क्या । दहेज के सामान के साथ तौल कर महबूबा नहीं आती है । दहेज की इकोनोमी पर सोसायटी अपना कंट्रोल खोना नहीं चाहती इसलिए वो लव मैरेज को आसानी से स्पेस नहीं देती । लड़की पहली कमोडिटी है जो लड़के के वैल्यू से तय होती है। पैसे के साथ दुल्हन । दुल्हन ही दहेज है ! डूब मरो मेरे देश के युवाओं ।

इश्क हमें आदमी बनाता है । जिम्मेदार बनाता है और पहले से थोड़ा थोड़ा अच्छा तो बनाता ही । सारे प्रेमी आदर्श नहीं होते और अच्छे नहीं होते मगर जो प्रेम में होता है वो एक बेहतर दुनिया की कल्पना ज़रूर करता है । इश्क़ में होना आपको शहर के अलग अलग कोनों में ले जाता है । आप किसी जगह हाथ पकड़ कर चलते हैं तो किसी जगह साथ साथ मगर दूर दूर चलते हैं ! प्रेमी शहर को अपने जैसा बनाना चाहते हैं । उनकी यादों का शहर ग़ालिब की शायरी से अलग होता है । वो शहर को जानते भी हैं और जीते भी हैं । उन्हीं के भीतर धड़कती है मौसम की आहट । जो प्रेम में नहीं है वो अपने शहर में नहीं है ।

‘ जिस तन को छुआ तूने उस तन छुपाऊं, जिस di tutti को लागे नयना वो किसको दिखाऊँ ‘ ( रूदाली का गाना है ) । आह ! हम इश्क के अहसास को ज़ाहिर भी नहीं कर सकते । मीरा तुम तो इसी देश की हो न । इश्क़ हमें थोड़ा कमज़ोर थोड़ा संकोची बनाता है । एक बेहतर इंसान में ये कमज़ोरियाँ न हों तो वो शैतान बन जाता है । चाहना सिर्फ आई लव यू बोलना नहीं है । चाहना किसी को जानना है और किसी के लिए ख़ुद को जानना है । फ़रवरी का महीना है । किसी माशूक़ को ढूँढने में ही मत गँवा दीजियेगा । खोजियेगा खुद को भी । अपने शहर को भी । उन कल्पनाओं को भी जिन्हें आप किसी के लिए साकार करना चाहते थे ।

हमारे शहर को इको फ्रेंडली के साथ इश्क फ्रेंडली बनाना है । एक स्पेस बनानी है जहाँ हम सुकून के पल गुज़ार सकें । जहाँ किसी को देखते ही पुलिस की लाठी ठक ठक न करे और किसी से बात करते ही बादाम वाला न आ जाए । ठीक है कि कल्पनाओं में सब है । फ़िल्मों में सब है । फिर ये ठीक क्यों है कि शहरों में ये सब नहीं है । ये ठीक नहीं है ।

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